Friday, November 29, 2024
Latest:
उत्तराखंड

श्राद्ध विशेष: गोरशाली गांव में सबसे पहले हाईस्कूल उत्तीर्ण करने का गौरव, सरल स्वभाव के धनी हर वर्ग के लिए जिये पंडित विजयकृष्ण उनियाल

उत्तरकाशी के गोरशाली गांव में पंडित विजयकृष्ण उनियाल का जन्म पंडित गंगाप्रसाद उनियाल एवं भानुमति उनियाल के सामान्य परिवार में प्रथम संतान के रूप में 8 अप्रैल 1952 को हुआ। विजयकृष्ण बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के छात्र थे, जिन्होंने अपने कठिन परिश्रम से अपने गांव में सबसे पहले हाईस्कूल उत्तीर्ण करने का गौरव 1968 में प्राप्त किया। विजयकृष्ण उनियाल ने सदैव ही एक साधारण जीवन में रहकर भी जीवन समाज के हर वर्ग के लिए जिया। इसके साथ ही 38 साल राजकीय सेवा (सिंचाई विभाग उत्तरप्रदेश,ग्राम पं अधिकारी) के रूप प्रदेश की सेवा की। 66वर्ष की आयु में विजयकृष्ण उनियाल ने अपनी जन्मभूमि में अंतिम सांस ली। विजयकृष्ण उनियाल के चारों पुत्रों में आचार्य राजेश उनियाल,पं राकेश उनियाल,महेश उनियाल,डां.धनेश प्रसाद उनियाल हैं। जो अपने पूज्य पिताजी की पावन तिथि पर सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए पिता के दिए संस्कारों और आशीर्वाद वचनों से समाज को प्रेरणा देने का काम कर रहे हैं।

शिक्षक महेश उनियाल ने इन पंक्तियों के माध्यम से अपने पिता को श्रद्धां​जलि अर्पित की है—

पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥

पद्मपुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

पितरौ यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च।
तस्य भागीरथी स्नानमहन्यहनि वर्तते॥

जिस पितृ-भक्त का पिता अपने पुत्र की पित्र सेवा से प्रसन्न हो जाता है उसको करोड़ों-बार भागीरथी में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है।

सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्॥

यदि पुत्र अपने जीवित माता-पिता को तीर्थ-देव समझे अर्थात:-माता को तीर्थ और पिता को तीर्थो में रमण करने वाला “परम-सत्यदेव” समझे तो उस पुत्र का “पुनर्पि जन्मं-पुनर्पि मरणं, पुनर्पि जननी जठरे शयनं” समाप्त हो जाता है।

मातरं पितरंश्चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तदीपा वसुन्धरा॥

जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा में रहता है उसे जो फल और पुण्य पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होता है वही पुण्य अपने माता-पिता की परिक्रमा अथवा आज्ञा का पालन करने से प्राप्त हो जाता है।

तिलकं विप्र हस्तेन,
मातृ हस्तेन भोजनम्।
पिण्डं पुत्र हस्तेन,
न भविष्यति पुनः पुनः।।

ब्राह्मण के हाथ से तिलक, माता के हाथ से भोजन एवं पुत्र के हाथ से पिण्डदान का बार-बार सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। इसलिए पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध अवश्य करें। वर्तमान में विधर्मियों की कूटनीति में फसकर अपनी सनातन संस्कृति को कदापि ना भूलें।

देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगेभ्य एव च।
नम: स्वधायै स्वहायै नित्यमेव नमोनम: ।।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *